अल्फ़ाज़-ओ-मआ'नी की करवट जो बदलते हैं पहलू मिरे मतलब के पहलू से निकलते हैं शक्ल और बदलती है जब शक्ल बदलते हैं हम सूरत-ए-अश्क अक्सर बे-पाँव भी चलते हैं कुछ ज़ोर नहीं चलता जब ज़ोर नहीं चलता वो दिल की तरह मेरे क़ाबू से निकलते हैं फ़स्ल आई है ये कैसी किस जोश पे है मस्ती बू देते हैं गुल मय की हम इत्र जो मलते हैं