नशात-ए-फ़त्ह से तो दामन-ए-दिल भर नहीं पाए मगर क्यूँ हारने वाले मोहब्बत कर नहीं पाए मुदावा किस तरह होगा वहाँ ज़ंगार-ए-वहशत का अगर कुछ आइने हम ने सितारों पर नहीं पाए फ़सील-ए-शहर से आगे ज़रा सा दश्त खिसका था और इस के ब'अद लोगों ने बहुत से घर नहीं पाए सुकूत-ए-मर्ग क्या टूटे कि हम ने शहर से बाहर दरख़्तों में परिंदे भी ज़ियादा-तर नहीं पाए किसी ने फ़क़्र से अपने ख़ज़ाने भर लिए लेकिन किसी ने शहरयारों से भी सीम-ओ-ज़र नहीं पाए दयार-ए-इश्क़ के पौदों में अब भी फूल आते हैं कि हम ने भीक में 'साजिद' कभी अख़गर नहीं पाए