नश्शे में चश्म-ए-नाज़ जो हँसती नज़र पड़ी तस्वीर-ए-होशयारी-ओ-मस्ती नज़र पड़ी लहराई एक बार वो ज़ुल्फ़-ए-ख़िरद-शिकार कोई न फिर बुलंदी-ओ-पस्ती नज़र पड़ी उट्ठी थी पहली बार जिधर चश्म-ए-आरज़ू वो लोग फिर मिले न वो बस्ती नज़र पड़ी हुस्न-ए-बुताँ तो आईना-ए-हुस्न-ए-ज़ात है ज़ाहिद को उस में कुफ़्र-परस्ती नज़र पड़ी यारब कभी तू बुल-हवसों को भी दे सज़ा माना हमारी जान तो सस्ती नज़र पड़ी सू-ए-चमन गए थे बहाराँ समझ के हम देखा तो एक आग-परस्ती नज़र पड़ी कैसी सबा कहाँ की नसीम-ए-चमन न पूछ नागिन सी फूल फूल को डसती नज़र पड़ी मुद्दत के बा'द अपनी तरफ़ फिर गया ख़याल तुम क्या मिले कि सूरत-ए-हस्ती नज़र पड़ी शबनम की बूँद बूँद ने हँस हँस के जान दी 'ताहिर' किरन किरन भी तरसती नज़र पड़ी