यहाँ तअ'य्युन-ए-क़द्र-ए-हयात क्या करते कि रास्ते ही में मंज़िल की बात क्या करते क़सम तो खाई थी मंज़िल पे जा के दम लेंगे पकड़ के पाँव मिरा हादसात क्या करते थे कान बंद तो आँखों की गुम थी बीनाई सदाएँ दे के भला वाक़िआ'त क्या करते हमें तो फ़िक्र थी वाइज़ की रुस्तगारी की हम अपने हक़ में दुआ-ए-नजात क्या करते हमारी तिश्ना-लबी तो रहीन-ए-ख़ंजर थी कोई बताए कि ले कर फ़ुरात क्या करते नवाज़िश-ए-ग़म-ए-दौराँ ही कम न थी 'नातिक़' इधर वो अपना रुख़-ए-इल्तिफ़ात क्या करते