तलब रोटी की तड़पाए तो ख़तरे भूल जाते हैं परिंदों को शिकारी के शिकंजे भूल जाते हैं ज़माने ने अज़ल से ही ये अपनी रीत है रक्खी जो सस्ता कुछ मयस्सर हो तो महँगे भूल जाते हैं मशक़्क़त की नहज इक दिन उन्हें कुंदन बनाती है जो बच्चे मुफ़्लिसी की ज़द में बस्ते भूल जाते हैं हुआ है ख़ून का प्यासा यहाँ पर हर कोई बंदा हवस दौलत की बढ़ जाए तो अपने भूल जाते हैं सभी कामों को अपने हम निभाते हैं सलीक़े से उलझ कर तेरी यादों में निवाले भूल जाते हैं तू अपनी बे-नवाई पर ज़ियादा ग़म न कर 'नासिर' लगे जब इश्क़ की ठोकर तो रस्ते भूल जाते हैं