नय आदमी पसंद न उस को ख़ुदा पसंद है आईने में क़ैद मिरा आईना पसंद वो चार दिन भी हम से निबाही नहीं गई वो मो'तदिल-मिज़ाज था मैं इंतिहा-पसंद वो ख़ुद-फ़रेब शख़्स था पत्थर शनास था आया न उस को कोई भी अपने सिवा पसंद जब कोई फ़र्क़ शाहिद-ओ-मशहूद में नहीं कैसे करे किसी को कोई दूसरा पसंद पूछे है हम ने काहे किया कुफ़्र इख़्तियार ग़फ़्लत पसंद है न हमें आसरा पसंद खोली है जब से आँख कभी सो नहीं सके क्यूँकि हमें है ख़्वाब में भी जागना पसंद मैं भी ये बर्ग-ए-सब्ज़ भी माही भी मुर्ग़ भी बाँधे हुए हैं मौत ने सारे हवा पसंद ख़ारिज की बात आँख से आगे की थी मगर सब क़ैदियों को रौज़न-ए-दीवार था पसंद 'आकाश' एक शख़्स है औरों से मुख़्तलिफ़ पहली नज़र में ही तुम्हें आ जाएगा पसंद