नया फ़ुसूँ ही दिखाएँ कोई ज़माने में चराग़ मुझ में जलें मैं चराग़ ख़ाने में धुआँ धुआँ सी फ़ज़ा से गुज़रने वाले लोग अजीब शग़्ल के मालिक हैं आशियाने में मैं इख़्तिलाफ़ नहीं कर रहा मगर मुझ को नज़र न आया कोई दीदा-वर ज़माने में ग़ुबार-ए-राह से निकलेगा शहसवार-ए-ख़याल उसे भी शामिल-ए-किरदार रख फ़साने में ख़ुद अपनी गर्द से अटती है चश्म-ए-ख़्वाब-आसार सो मेरे हाथ कटे आइना उठाने में समुंदरों से इलाक़ा नहीं मगर 'जावेद' ये हम जो ख़र्च हुए कश्तियाँ बनाने में