नए इक शहर को सुब्ह-ए-सफ़र क्या ले चली मुझ को सदाएँ दे रही है एक छोटी सी गली मुझ को मैं अपनी उम्र भर का चैन जब उस दर पे छोड़ आया मिली है तब कहीं जा कर ज़रा सी बे-कली मुझ को मैं क़तरे गिन के इंसानों की तक़दीरें बनाता हूँ ज़रा सी तिश्ना-कामी ने बना डाला वली मुझ को मैं वो गुलशन-गज़ीदा हूँ कि तन्हाई के मौसम में नहीं होते अगर काँटे तो डसती है कली मुझ को मोहब्बत थी उसे लेकिन मिरा इफ़्लास जब देखा परेशाँ सी नज़र आई वो नाज़ों की पली मुझ को 'क़तील' आबाद जब घर था तो क्यूँ मुझ पर कहीं ग़ज़लें ये ता'ना जाते जाते दे गई इक दिल-जली मुझ को