नए लिबास को हम तार-तार क्या करते मिली थी भीक में फ़स्ल-ए-बहार क्या करते हम अपने ज़ख़्म-ए-तमन्ना शुमार क्या करते तमाम उम्र यही कारोबार क्या करते जब आफ़्ताब कई अपनी दस्तरस में रहे तुम्हीं कहो कि चराग़ों से प्यार क्या करते हमारे हाथ में पत्थर थे फल गिराने को हम आंधियों का भला इंतिज़ार क्या करते कभी हम अपनी वफ़ाओं से मुतमइन न हुए निगाह-ए-यार तुझे शर्मसार क्या करते हमारा दर्द भी कुछ तुम से मुख़्तलिफ़ तो न था हम अहल-ए-ज़र्फ़ थे चीख़-ओ-पुकार क्या करते उन्हें भी अपनी ख़ुशी थी अज़ीज़ ऐ 'असरार' जो मेरा दिल न दुखाते तो यार क्या करते