हरीस-ए-ख़्वाहिश-ए-लअ'ल-ओ-गुहर नहीं हुई मैं मोहब्बतों में तलबगार-ए-ज़र नहीं हुई मैं तिरा ख़याल रहा दिल की धड़कनों के क़रीं सो तेरे ग़म से कभी बे-ख़बर नहीं हुई मैं सजाया ख़ुद को वफ़ा के सिंघार से मैं ने इसी सबब से कभी बे-हुनर नहीं हुई मैं किसी को कैसे बताती मैं मंज़िलों का पता जब अपने साथ शरीक-ए-सफ़र नहीं हुई मैं ख़ुदा-ए-हुस्न-ए-अज़ल ने मुझे नवाज़ा है ख़ुमार-ए-इश्क़ से सर्फ़-ए-नज़र नहीं हुई मैं है उस का दा'वा कि मैं उस की ज़िंदगी हूँ 'नाज़' वो क्या करेगा किसी दिन अगर नहीं हुई मैं