नज़र कोई नहीं आता है मेहरबाँ मुझ को दयार-ए-ग़ैर सा लगता है गुल्सिताँ मुझ को मुझे तो करनी है ता'मीर-ए-गुल्सिताँ फिर से अगर सुकून से रहने दे आसमाँ मुझ को हज़ार बार ज़माने ने करवटें बदलीं मिटा सकी न कभी गर्दिश-ए-जहाँ मुझ को अजीब बात है जो हम-सफ़र हैं सदियों से समझ रहे हैं वही गर्द-ए-कारवाँ मुझ को यहाँ न दोस्त किसी का न कोई दुश्मन है बुरा हो यास का ले आई है कहाँ मुझ को छुपाए दोस्त मिरा आस्तीं में ख़ंजर था न हो सका किसी सूरत भी ये गुमाँ मुझ को जो मेरे दर्द का दरमाँ 'नज़ीर' बतलाता मिलेगा अब वो मसीहा-नफ़स कहाँ मुझ को