जल्वा कहाँ कि ज़ोर-ए-नज़र आज़माएँ हम पर्दा उठाएँ वो तो नज़र भी उठाएँ हम ऐ जान-ए-इंतिज़ार कोई ऐसी शक्ल भी हर आने वाले पर तिरा धोखा न खाएँ हम आँखों की नींद दोनों तरह से हराम है उस बेवफ़ा को याद करें या भुलाएँ हम मस्जिद का दर भी बंद दर-ए-मय-कदा भी बंद किस दर पे जाएँ कौन सा दर खटखटाएँ हम हल्का करें तो कैसे करें दिल के बोझ को दस्त-ए-दुआ' उठाएँ कि साग़र उठाएँ हम पहुँचेंगे मय-कदे में तो ढालेंगे बे-हिसाब मस्जिद में जाएँगे तो गिनेंगे ख़ताएँ हम वो शाम-ए-मय-कदा हो कि सुब्ह-ए-हरम 'नज़ीर' लेने लगे हैं दोनों के सर की बलाएँ हम