नज़र मिलते ही बरसे अश्क-ए-ख़ूँ क्यूँ दीदा-ए-तर से रगें क़ल्ब-ओ-जिगर की छेड़ दीं क्या तुम ने नश्तर से यक़ीनन कुछ तअ'ल्लुक़ है तिरे दर को मिरे सर से वगर्ना लौह-ए-पेशानी का क्या रिश्ता है पत्थर से मिरे पहलू में है आबाद अरमानों की एक दुनिया हज़ारों मय्यतें उठेंगी मिरे साथ बिस्तर से वो अपनी ज़ुल्फ़ बिखरा कर तसव्वुर ही में आ जाते ये साया भी उठा अब तो मिरी उम्मीद के सर से वफ़ा ने हसरत-ए-कुश्ता का उस को ख़ूँ-बहा समझा गिरा जो अश्क दामन पर लहू का दीदा-ए-तर से सुनाऊँ तुम को वो लफ़्ज़ों में हाल-ए-ख़ूबी-ए-क़िस्मत मिरे दामन पर बरसे भी तो अश्कों के गुहर बरसे मिरी हस्ती मिटाने वाले शायद तू नहीं वाक़िफ़ कि मिट कर भी बनेगी एक दुनिया मेरे पैकर से ख़याल-ए-आबला-पाई 'वक़ार' इक उज़्र-ए-बेजा था न घर था दूर मंज़िल से न मंज़िल दूर थी घर से