नज़र से नम न गया रूह से कसक न गई बदन से जब तक उदासी मिरी छलक न गई मिरी तो आह भी शायद हवा से भारी है ज़मीन तक ही रही आसमान तक न गई मैं सोचता रहा जब तक दिमाग़ शल न हुआ मैं देखता रहा जब तक निगाह थक न गई वो बर्शगाल कहीं हाफ़िज़े में रह गई है घटा बरस गई लेकिन गरज चमक ना गई किरन ने सब्ज़े भरे बाग़ से गुज़र ना किया कि जब तक ओस के क़तरों से राह ढक ना गई मैं तुझ से कट के जला शाख़-ए-संदलीं की तरह मैं राख हो गया मुझ से तिरी महक ना गई