ने शहरियों में हैं न बयाबानियों में हम आज़ाद हैं प हैं तिरे ज़िंदानियों में हम जिन का नज़ीर दस्त-ए-क़ज़ा से न बन सका इंसाफ़ हो तो हैं उन्ही ला-सानियों में हम दरिया की लहरों से ये अयाँ है कि जूँ हुबाब रखते हैं दिल को जम्अ' परेशानियों में हम रश्कूक मेरे अश्क के ले उस ने यूँ कहा इन मोतियों को डालेंगे चौदानियों में हम अब ताइरन-ए-दश्त के हैं हम-नशीद-ए-दर्द करते थे ज़मज़मे कभी बुसतानियों में हम ऐ तेग़-ए-नाज़ तू ने ये कैसा सितम क्या बे-जब्ह रह गए तिरे क़ुर्बानियों में हम जिस जा पड़े हैं कुश्ते तिरे उन के जो नसीम बोसे ही देते फिरते हैं पेशानियों में हम सौ ईदें आईं और हुआ हम को हुक्म-ए-क़त्ल क्या ना-क़ुबूल हैं तिरे ज़िंदानियों में हम ऐ शहसवार-ए-हुस्न इनाँ ले कि पिस गए तेरे समंद-ए-नाज़ की जौलानियों में हम मुद्रिक हैं जुज़ ओ कुल के प रहते हैं रात दिन उस कार-गाह-ए-सनअ की हैरानियों में हम कश्ती शिकस्त-ख़ुर्दा-ए-दरिया-ए-इशक़ हैं जाते हैं तिरते डूबते तूफ़ानियों में हम मुहताज-ए-मर्ग काहे को फिर होवें 'मुसहफ़ी' जीते ही जी जो बैठे हों रूहानियों में हम