नीम के पत्तों का ज़ख़्मों को धुआँ दे दीजिए फिर मिरी आँखों को पहरे-दारियाँ दे दीजिए हो सके तो ये नवाज़िश हम फ़क़ीरों पर करें बुझते रंगों का हमें ये आसमाँ दे दीजिए शब-परस्तों को भी तस्कीन-ए-अना मिल जाएगी उन का हक़ है उन को शब-बेदारियाँ दे दीजिए शाख़ पर काँटों को पैराहन बदलने के लिए मौसमों को शबनमी बे-सम्तियाँ दे दीजिए बे-हिसी का ख़ुश्क सा सहरा है आँखों में मिरी धूल-ए-मंज़र से तो कुछ तुग़्यानीयाँ दे दीजिए धुँदलके तो नौहा-ख़्वानी में बहुत मसरूफ़ हैं रात ज़ख़्मी है उसे बैसाखियाँ दे दीजिए आरिज़ी मौसम को भी एहसास-ए-महरूमी न हो घर के सन्नाटों को एहसास-ए-ज़ियाँ दे दीजिए धूप में थोड़ी सी गुंजाइश निकल आए तो 'रिंद' एक मुट्ठी छाँव का ही साएबाँ दे दीजिए