हुस्न से शरह हुई इश्क़ के अफ़्साने की शम्अ' लौ दे के ज़बाँ बन गई परवाने की शान बस्ती से नहीं कम मिरे वीराने की रूह हर बोंडले में है किसी दीवाने की आमद-ए-मौसम-ए-गुल की है ख़बर दौर-ए-दिगर ताज़गी चाहिए कुछ साख़्त में पैमाने की आई है काट के मीआ'द-ए-असीरी की बहार हतकड़ी खुल के गिरी जाती है दीवाने की सर्द ऐ शम्अ' न हो गर्मी-ए-बाज़ार-ए-जमाल फूँक दे रूह नई लाश में परवाने की उठ खड़ा हो तो बगूला है जो बैठे तो ग़ुबार ख़ाक हो कर भी वही शान है दीवाने की 'आरज़ू' ख़त्म हक़ीक़त पे हुआ दौर-ए-मजाज़ डाली काबे की बिना आड़ से बुत-ख़ाने की