नेज़े पे सर चढ़ेगा सय्यद को सब पता था लेकिन वो सू-ए-मक़्तल बे-ख़ौफ़ चल रहा था बेटे भतीजे भाई वारे नहीं झुका वो बातिल को हक़ न माना इतना सा मुद्दआ' था मातम-कुनाँ था उस पल इंसानियत पे सहरा बाँहों में जब वो लाश-ए-असग़र लिए खड़ा था याक़ूब की तरह से रोया न था इधर वो नबियों से बढ़ के मेरे मुर्शिद का हौसला था तारीख़ पढ़ के देखें मिलता नहीं कोई भी कर्ब-ओ-बला में जैसे ग़ाज़ी मिरा लड़ा था इस्लाम ज़िंदा है तो ज़िंदा हुसैन भी हैं कर्बल फ़क़त यज़ीदी नख़वत का ख़ात्मा था मरता नहीं 'ज़फ़र' जो हक़ सच पे सर कटा दे सोचों को जिस ने बदला ऐसा वो सानेहा था