नेकी बदी की अब कोई मीज़ान ही नहीं ईमाँ की बात ये है कि ईमान ही नहीं इस दौर-ए-बे-ज़मीर पे क्या तब्सिरा करूँ लगता है मेरे अहद में इंसान ही नहीं कैसे रफ़ू करूँ मैं कहाँ से रफ़ू करूँ दिल भी है मेरा चाक गरेबान ही नहीं रूदाद-ए-दिल भी है ये ग़म-ए-काएनात भी मेरी ग़ज़ल नशात का सामान ही नहीं बरकत हमारे रिज़्क़ में आएगी किस तरह घर में हमारे जब कोई मेहमान ही नहीं लो वो अज़ाँ से सुब्ह की तस्दीक़ हो गई गोया अब उस के आने का इम्कान ही नहीं