निगाह-ए-शर्मगीं से जब मोहब्बत बट रही होगी न जाने उस घड़ी किस किस की बिगड़ी बन गई होगी वो आलम कौन सा होगा वो दुनिया कौन सी होगी जहाँ हद्द-ए-नज़र तक ज़िंदगी ही ज़िंदगी होगी इसी सूरत से शायद ज़िंदगी-ए-ग़म सँवर जाए मिरे हक़ में तुम्हारी दुश्मनी भी दोस्ती होगी मुझे बर्बाद कर के भी न होगी मेहरबाँ मुझ पर ख़बर क्या थी निगाह-ए-नाज़ इतनी मतलबी होगी तग़ाफ़ुल का तुम्हारे अब यही अंजाम होना है तमाशा मेरी बर्बादी का दुनिया देखती होगी तसव्वुर से भी उस के काँपने लगता है दिल मेरा जुदाई की घड़ी भी किस क़यामत की घड़ी होगी वही वक़्त होगा ऐ 'साहिर' वफ़ा की कामयाबी का हर इक शय में उन्हें महसूस जब मेरी कमी होगी