निगाह के लिए इक ख़्वाब भी ग़नीमत है वो तीरगी है कि ये रौशनी ग़नीमत है चलो कहीं पे तअल्लुक़ की कोई शक्ल तो हो किसी के दिल में किसी की कमी ग़नीमत है कम ओ ज़ियादा पे इसरार क्या किया जाए हमारे दौर में इतनी सी भी ग़नीमत है बदल रहे हैं ज़माने के रंग क्या क्या देख नज़र उठा कि ये नज़्ज़ारगी ग़नीमत है न जाने वक़्त की गर्दिश दिखाएगी क्या रुख़ गुज़र रही है जो ये ज़िंदगी ग़नीमत है ग़म-ए-जहाँ के झमेलों में आफ़्ताब 'हुसैन' ख़याल-ए-यार की आसूदगी ग़नीमत है