निगाह मुझ से मिलाने की उन में ताब नहीं मेरे सवाल का शायद कोई जवाब नहीं बहुत दिनों से कोई दिल में इज़्तिराब नहीं समाया आँखों में अब और कोई ख़्वाब नहीं मिरी अना तो अभी सर-बुलंद है मुझ में मुझे शिकस्त भी दे कर वो कामयाब नहीं ख़ुदा का शुक्र है शर्म-ओ-हया सलामत है वो आईना है मगर मैं भी बे-हिजाब नहीं बहार आने को आई समाँ नहीं बदला खिले है ख़ार हर इक शाख़ पर गुलाब नहीं यहाँ दिमाग़ नहीं दिल की होती है तालीम हुज़ूर-ए-इश्क़ के मकतब का कुछ निसाब नहीं हिजाब में है हर इक राज़ मेरी हस्ती का ज़माना शौक़ से पढ़ ले ये वो किताब नहीं कोई बताए कि सँभलें तो किस तरह सँभलें मिली हैं ठोकरें इतनी कि कुछ हिसाब नहीं हाँ मेरे फ़न से मुनव्वर है इक जहाँ लेकिन मैं एक ज़र्रा-ए-ख़ाकी हूँ आफ़्ताब नहीं 'सिया' सुकून से बाक़ी है जो गुज़र जाए अब और रंज सहूँ इतनी मुझ में ताब नहीं