निगाह-ए-लुत्फ़ कभी गर वो मस्त-ए-नाज़ करे नियाज़-मंद को आलम से बे-नियाज़ करे वो सर-नविश्त-ए-जबीं पर बजा है नाज़ करे जो आस्ताँ पे तिरे सज्दा-ए-नियाज़ करे न तेरे चाहने वालों में हो ये जंग-ओ-जदल इशारा गर न तिरी चश्म-ए-फ़ित्ना-साज़ करे बुझाएँ प्यास कहाँ जा के तेरे मस्ताने जो साक़िया दर-ए-मय-ख़ाना तू न बाज़ करे जहाँ में शोर है और वो निगार पर्दे में अजब हो सैर जो वो रुख़ से पर्दा बाज़ करे नहीं वो लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-इश्क़ से आगाह सितम में और करम में जो इम्तियाज़ करे जो चाहे गर्मी-ए-हंगामा बज़्म-ए-दौराँ में सदा बुलंद करे और ज़बाँ दराज़ करे जो बज़्म-ए-उन्स में चाहे कि शम-ए-महफ़िल हो तू दिल में इश्क़ से पैदा ज़रा गुदाज़ करे इन्हीं के हुस्न से है गर्म इश्क़ का बाज़ार दुआ ख़ुदा से है उम्र-ए-बुताँ दराज़ करे फ़साना-गो से कहो मुख़्तसर हो क़िस्सा-ए-जम हदीस-ए-गेसू-ए-जानाँ ज़रा दराज़ करे ये सिलसिला ग़म-ए-दौराँ का है अबद पैवंद सुकून दिल का जो चाहे वो तर्क-ए-आज़ करे ख़ुदा का नाम भी लो बाज़ुओं से काम भी लो तो फ़िक्र-ए-कार ख़ुदावंद-ए-कारसाज़ करे हवा-ओ-हिर्स से 'नाज़िर' रहे जो पाक नज़र तो हमसरी न हक़ीक़त की क्यूँ मजाज़ करे