निगाह-ए-शौक़ में ख़्वाबों का इक समुंदर था खुली जो आँख तो मैं हादसे की ज़द पर था तमाम उम्र मैं बाहर तलाश करने से ख़ुद अपनी ज़ात में मैं झाँकता तो बेहतर था सलीब पर उसे किस जुर्म में चढ़ाया गया वो एक शख़्स जो रहबर था न पयम्बर था किसी भी जंग में उस ने नहीं फ़त्ह पाई ये और बात कि वो वक़्त का सिकंदर था जगा सकी न किसी को हमारी चीख़ कभी हमारे अह्द का हर शख़्स गोया पत्थर था तमाम उम्र मिरी ख़ौफ़ में कटी 'नक़वी' जहाँ क़ियाम था मेरा वो काँच का घर था