निगाह-ए-शौक़ से कब तक मुक़ाबला करते वो इल्तिफ़ात न करते तो और क्या करते ये रस्म-ए-तर्क-ए-मोहब्बत भी हम अदा करते तेरे बग़ैर मगर ज़िंदगी को क्या करते ग़ुरूर-ए-हुस्न को मानूस-ए-इल्तिजा करते वो हम नहीं कि जो ख़ुद-दारियाँ फ़ना करते किसी की याद ने तड़पा दिया फिर आ के हमें हुई थी देर न कुछ दिल से मशवरा करते ये पूछो हुस्न को इल्ज़ाम देने वालों से जो वो सितम भी न करता तो आप क्या करते सितम-शिआर अज़ल से है हुस्न की फ़ितरत जो मैं वफ़ा भी न करता तो वो जफ़ा करते हमें तो अपनी तबाही की दाद भी न मिली तिरी नवाज़िश-ए-बेजा का क्या गिला करते निगाह-ए-नाज़ की मासूमियत अरे तौबा जो हम फ़रेब न खाते तो और क्या करते निगाह-ए-लुत्फ़ की तस्कीं का शुक्रिया लेकिन मता-ए-दर्द को किस दिल से हम जुदा करते