निगाहों पर निगहबानी बहुत है नवाज़िश ज़िल्ल-ए-सुब्हानी बहुत है यहाँ ऐसे ही हम कब बैठ जाते तिरे कूचे में वीरानी बहुत है अभी क़स्द-ए-सफ़र का क़िस्सा कैसा अभी राहों में आसानी बहुत है तिरी आँखें ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे तिरी आँखों में हैरानी बहुत है लब-ए-दरिया ज़बाँ से तर करेंगे अभी तलवार में पानी बहुत है मुबारक उन को सुल्तानी अदब की मुझे तो उस की दरबानी बहुत है