निगार-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ से लौ लगाए हुए हैं अपने दोश पे अपनी सलीब उठाए हुए गुज़र रहे हैं दबे पाँव वक़्त की मानिंद फ़राज़-ए-दार पे अपनी नज़र जमाए हुए सिला मिले न मिले ख़ून-ए-दिल छिड़कते चलें हर एक ख़ार है दस्त-ए-तलब बढ़ाए हुए वो अब भी साया-ए-अब्र-ए-रवाँ को तकते हैं जिन्हें ज़माना हुआ अपना घर जलाए हुए छलक सका न कभी जाम-ए-चश्म-ए-तर 'मोहसिन' अगरचे उम्र हुई हम को गुनगुनाए हुए