निहत्ते आदमी पे बढ़ के ख़ंजर तान लेती है मोहब्बत में न पड़ जाना मोहब्बत जान लेती है उसे ख़ामोश देखूँ तो सुनाई कुछ नहीं देता दिखाई कुछ नहीं देता नज़र जब कान लेती है उदासी आश्ना है इस क़दर आहट से मेरी अब जहाँ से भी गुज़रता हूँ मुझे पहचान लेती है ख़ुशी तो दे ही देती है तिरी दुनिया मुझे ला कर मगर बदले में वो उस के मिरा ईमान लेती है बस इक लम्हा लगाती है ख़ुशी आ कर गुज़रने में उदासी आए तो सदियों की मिट्टी छान लेती है बराबर बाँट देती है वो साँसें ख़ाक-ज़ादों में न-जाने ज़िंदगी किस की दुकाँ से भान लेती है इसी के साथ चलती है ये मंज़िल पर पहुँचने तक ये राह-ए-ग़म जिसे अपना मुसाफ़िर जान लेती है वो हर मछली जो मछली घर की पैदावार हो साहब वो मछली घर को ही अपना समुंदर मान लेती है हम उस के हाथ पे रख दें ज़मीन-ओ-आसमाँ ला कर मगर वो हम फ़क़ीरों का कहाँ एहसान लेती है सर-ए-मक़्तल बिखर जाते हैं इस में डूबने वाले मोहब्बत हर क़दम पर ख़ून का तावान लेती है अगर बुझने से बचना है तो लौ से लौ जलाओ 'ज़ेब' हवा जलते चराग़ों से यही पैमान लेती है