निकल पड़े हैं सनम रात के शिवाले से कुछ आज शहर-ए-ग़रीबाँ में हैं उजाले से चलो पलट भी चलें अपने मय-कदे की तरफ़ ये आ गए किस अंधेरे में हम उजाले से ख़ुदा करे कि बिखर जाएँ मेरे शानों पर सँवर रहे हैं ये बादल जो काले काले से बुतों की ख़ल्वत-ए-रंगीं में बज़्म-ए-अंजुम में कहाँ कहाँ न गए हम तिरे हवाले से जुनूँ की वादी-ए-आज़ाद में तलब कर लो निकाल लो हमें शाम-ओ-सहर के हाले से हयात-ए-अस्र मुझे फेर दे मिरा माज़ी हसीन था वो अंधेरा तिरे उजाले से कोई मनाए तो कैसे मनाए दिल को 'शमीम' ये बात पूछिए इक रूठ जाने वाले से