निकालो कोई तो सूरत कि तीरगी कम हो हमारा घर ही जला दो जो रौशनी कम हो हमारे अहद को रास आ गई वो बाद-ए-सुमूम कि जिस में मौत ज़ियादा हो ज़िंदगी कम हो ज़माने कैसे तुझे अपनी राह पर लाए हम अहल-ए-इश्क़ की कैसे ये बेबसी कम हो किसी तरह तो नुमाइश का ये नशा उतरे किसी तरह तो दिखावे की ज़िंदगी कम हो ये क्या हमेशा वफ़ा-ओ-ख़ुलूस की बातें कुछ ऐसी बात करो जो कही सुनी कम हो कोई जतन तो करो दोस्तो बुलाओ उसे मिरी निगाह की उस की ये प्यास ही कम हो तुम्हारा मेरा ये रिश्ता अजीब है कि जहाँ न दोस्ती ही घटे और न दुश्मनी कम हो