निखर सका न बदन चाँदनी में सोने से सहर हुई तो ख़राशें चुनीं बिछौने से सदफ़ लिए हुए उभरी है लाश भी मेरी बचा रहे थे मुझे लोग ग़र्क़ होने से हुनर है तुझ में तो क़ाइल भी कर ज़माने को चमक उठेगी न शक्ल आइने को धोने से लिपट रही हैं मिरे रास्तों से रौशनियाँ नज़र में लोग हैं कुछ साँवले सलोने से लगा के ज़ख़्म बहाने चला है अब आँसू रुका है ख़ून कहीं पट्टियाँ भिगोने से हमीं न हों कहीं देखो तो ग़ौर से लोगो हैं तिफ़्ल-ए-वक़्त के हाथों में कुछ खिलौने से मिरे दुखों से भी कुछ फ़ाएदा उठा दुनिया ज़मीं की प्यास बुझे बादलों के रोने से लहू रगों में 'मुज़फ़्फ़र' छुड़ाए महताबी मिले है क्या उसे चिंगारियाँ चुभोने से