निकहत-ए-तुर्रा-ए-मुश्कीं जो सबा लाई है कोई आवारा हुआ है कोई सौदाई है बे-ख़ुदी से है यहाँ बे-ख़बरी का आलम ख़ुद-नुमाई को वहाँ शग़्ल-ए-ख़ुद-आराई है अपनी ही जल्वागरी है ये कोई और नहीं ग़ौर से देख अगर आँख में बीनाई है है मुझे कश्मकश-ए-सई-ओ-तलब से नफ़रत दिल मिरा तर्क-ए-तमन्ना का तमन्नाई है जुज़ दिल-ए-पाक न पाया हरम-ए-ख़ास कहीं दैर-ओ-काबा में अबस नासिया-फ़रसाई है नाज़ की जल्वागरी के लिए मंज़र है नियाज़ ना-तवानी मिरी हम-रंग-ए-तवानाई है जब तबीअ'त ही न हाज़िर हो तो बे-सूद है फ़िक्र शेर-गोई तो कहाँ क़ाफ़िया-पैमाई है मुँह पे लाऊँ तो ये कम-ज़र्फ़ बहक जाएँ अभी बात जो पीर-ए-ख़राबात ने समझाई है ख़ुद मुनादी ओ मुनादा हूँ न ग़ैबत न हुज़ूर आलम-ए-ग़ैब से यूँ दिल में निदा आई है दिल ये कहता है कि हासिल की है तहसील अबस न तमन्ना कोई शय है न तमन्नाई है