निकले चले आते हैं तह-ए-ख़ाक से खाने ये ख़्वान-ए-करम किस ने बिछाया है ख़ुदा ने जो दिल में है मुँह फोड़ के बरवर नहीं कहते मारा मुझे यारों की दुरुस्त और बजा ने ग़फ़लत में हैं सर-मस्त बदलते नहीं करवट गो सर पे उठा ली है ज़मीं शोर-ए-दरा ने इसराफ़ ने अर्बाब-ए-तमव्वुल को डुबोया आलिम को तफ़ाख़ुर ने तो ज़ाहिद को रिया ने मर्द उस को समझते न किया हो जिसे बदमस्त अय्याम-ए-जवानी की मय-ए-होश-रुबा ने बा-ईं-हमा दरमांदगी इंसाँ के ये दा'वे क्या ज़ात-ए-शरीफ़ इन को बनाया है ख़ुदा ने जल्वत का भरोसा है न ख़ल्वत की तवक़्क़ो' सब वहम था यारों ने जो ताके थे ठिकाने