निकला वो माह-रू मकाँ से अब मेहर गुम होगा आसमाँ से अब मिन्नतें मुद्दतों से करता हूँ कुछ तो फ़रमाइए ज़बाँ से अब उस की महफ़िल में मैं जो जा बैठा बोले उठ जाइए यहाँ से अब दम-ए-आख़िर तो शक्ल दिखला दो कूच है अपना इस जहाँ से अब काम दुनिया से कुछ नहीं 'बे-गुन बैठे मुँह मोड़ कर जहाँ से अब