निकली जो रूह जिस्म से फिर है बदन में क्या जब शम्अ बुझ गई तो रहा अंजुमन में क्या वो शेर क्या कि दिल में जो नश्तर चुभा न दे हो जिस में बू न दर्द की है उस सुख़न में क्या टेढ़ा जवाब देते हो तुम सीधी बात का याद इक अदा यही है तुम्हें बाँकपन में क्या हल कर दिया तबस्सुम-ए-लब ने ये मसअला अब उज़्र आप को है सुबूत-ए-दहन में क्या आ हम दिखाएँ दाग़-ए-जिगर की तुझे बहार ऐ अंदलीब सैर है तेरे चमन में क्या क्यों चूमते हैं इस को नकीरैन बार बार नाम उस का है लिखा हुआ मेरे कफ़न में क्या सौ अह्द उस ने तोड़े मगर फिर यक़ीन है है मो'जिज़ा यही लब-ए-पैमाँ-शिकन में क्या ऐ अहल-ए-अक़्ल इस का मज़ा यूँ न आएगा दीवाना बन के देखो है दीवाना-पन में क्या जो नाफ़ा है वो काकुल-ए-मुश्कीं की है गिरह सद-रंग क्या है और है रंग-ए-समन में क्या तुम माल-दार हो न हुनर-वर न बा-कमाल 'अकबर' तुम्हारी क़द्र हो मुल्क-ए-दकन में क्या