'निशा' घबरा के काशानों से वीरानों में आ पहुँचे बहार आई तो अहल-ए-दिल बयाबानों में आ पहुँचे हमारी क्या ख़ता है ये ख़ता दैर-ओ-हरम की है ख़ुदा का घर न रास आया तो मय-ख़ानों में आ पहुँचे हमारी गुमरही आख़िर हमें रस्ते पे ले आई ख़िरद के दश्त-ओ-दर से चल के इंसानों में आ पहुँचे गुलों की बारयाबी का सबब रंग-ओ-लताफ़त है ये काँटे किस तरह आख़िर गुलिस्तानों में आ पहुँचे क़रीं जब आ गई मंज़िल तो जाने क्या हमें सूझी पलट कर अज़-सर-ए-नौ फिर उन्हीं राहों में आ पहुँचे अभी है दूर फ़ैज़-ए-सोहबत-ए-इख़्लास की दुनिया जो मय-ख़्वारों तक आ जाए तो इंसानों में आ पहुँचे न आता था न आए वो कुछ ऐसी बात थी लेकिन ये क्या कम है दबे पाँव मिरे शे'रों में आ पहुँचे