निशाँ मंज़िल का बतलाया न मुझ को हम-सफ़र जाना तज़ब्ज़ुब में पड़ा है वो जिसे मैं ने ख़िज़र जाना नज़र मेरी बसीरत को सदा महदूद रखती है पस-ए-मंज़र नहीं देखा फ़क़त पेश-ए-नज़र जाना जहाँ तक़दीर ले जाए वहाँ रस्ते नहीं जाते किया था रुख़ इधर का क्यूँ लिखा था जब उधर जाना हवाला ज़िंदगी का भी तुम्हारी ज़ुल्फ़ जैसा है बिखरना फिर सँवर जाना सँवरना फिर बिखर जाना जुनूँ की राह को अब तक समझ पाए नहीं साहब कि अपने जिस्म को ढा कर फ़क़त जाँ से गुज़र जाना डुबोया जिस ने कश्ती को उसे ही ना-ख़ुदा समझे दिए थे जिस ने सारे दुख उसी को चारागर जाना उन्हीं तारीक राहों से गुज़रना है तुम्हें 'आदिल' चराग़-ए-जाँ जला कर तुम बिला ख़ौफ़-ओ-ख़तर जाना