नियाज़-ओ-नाज़ बाहम एक ही मंज़िल में रहते हैं हम उन के दिल में रहते वो हमारे दिल में रहते हैं वो जानें खेलना क्या मौज-ए-तूफ़ान-ए-हवादिस से जो तन-परवर बने आराम के साहिल में रहते हैं अमल दरकार है मुमकिन नहीं क्या शय ज़माने में निहाँ परवाज़ के पर नक़्श-ए-आब-ओ-गिल में रहते हैं शिकस्ता होता है जिबरील का पर भी जहाँ जा कर ये पुतले ख़ाक के वल्लाह उस मंज़िल में रहते हैं ख़ुशी का पेश-ख़ेमा उन का हर ग़म है जो दुनिया में ग़म-ए-मौजूद भूले फ़िक्र-ए-मुस्तक़बिल में रहते हैं 'जलाल'-ए-बे-नवा मुश्किल-पसंद अपनी तबीअत है इसी बाइ'स घिरे दिन रात हम मुश्किल में रहते हैं