अजब शय है बुढ़ापा आदमी बेकार होता है किसी सूरत उठा तो बैठना दुश्वार होता है वो क्या जाने नसीम-ए-सुब्ह-दम की मुश्क-अफ़्शानी बहाइम की तरह जो दिन चढ़े बेदार होता है ग़ज़ल कहने में ऐ जान-ए-ग़ज़ल होती है दुश्वारी नज़र के सामने जब तू न जल्वा-बार होता है अगर हो तंदुरुस्ती आश-ए-जौ नान-ए-मुरग़्ग़न है तबीअ'त मुज़्महिल हो गर तो गुल भी ख़ार होता है बहर-सू जुस्तुजू-ए-मर्ग में फिरता हूँ आवारा सुना है बाद मरने के तिरा दीदार होता है 'जलाल'-ए-बे-नवा सर पर ये क्या वक़्त-ए-ख़राब आया क़लम को उँगलियों से थामना भी बार होता है