निज़ाम-ए-जब्र की ज़ुल्मत पे संग-बारी है गुज़र ही जाएगी माना कि रात भारी है बनाओ शौक़ से अपने मकान शीशे के मुख़ालिफ़ों को मगर शौक़-ए-संग-बारी है ग़म-ए-ज़माना ग़म-ए-ज़िंदगी ग़म-ए-जानाँ सुलग रहे हैं ख़यालात जंग जारी है हर एक शय पे तसल्लुत है ज़र-परस्तों का ग़रीब लोगों की क़िस्मत में अश्क-बारी है ये क़ातिलों की समझ में कभी नहीं आया हमारी आज है तो कल तुम्हारी बारी है सुना है अपने शबिस्ताँ से चल पड़ी है सबा सहर कब आएगी हर दिल में बे-क़रारी है जो उन को देखा तो रोया भी मुस्कुराया भी 'शरर' ये जज़्बा मोहब्बत का इज़्तिरारी है