न-जाने टूट के कब से बिखर रहा हूँ मैं कि अपनी ज़ात का ख़ुद एक सानेहा हूँ मैं मिरे लहू की ज़रूरत है तेरे हाथों को इसी तसव्वुर-ए-रंगीं से जी रहा हूँ मैं मुसीबतें तो हैं अपनी शुमार से बाहर कि हादसात में हर लहज़ा मुब्तला हूँ मैं न-जाने कैसा सफ़र है कि कुछ पता ही नहीं चला कहाँ से कहाँ आ के रुक गया हूँ मैं न याद आए कोई और न दे कोई आवाज़ निकल के यादों की बस्ती से आ गया हूँ मैं अना को तोड़ के आ जाऊँ तेरे पास मगर तिरा इरादा न अब तक समझ सका हूँ मैं फिर आज सहमे हुए लम्हे याद आने लगे हिसार-ए-दर्द में 'ख़ुर्शीद' घिर गया हूँ मैं