नुमायाँ दोनों जानिब शान-ए-फ़ितरत होती जाती है उन्हें मुझ से मुझे उन से मोहब्बत होती जाती है मिरी शाम-ए-अलम सुब्ह-ए-मसर्रत होती जाती है कि हर लहज़ा तिरे मिलने की सूरत होती जाती है निगाहें मुज़्तरिब उतरा हुआ चेहरा ज़बाँ साकित जो थी अपनी वही अब उन की हालत होती जाती है न क्यूँ हों इस अदा पर इश्क़ की ख़ुद्दारियाँ सदक़े उन्हें रूदाद-ए-ग़म सुन सुन के हैरत होती जाती है कहीं राज़-ए-मोहब्बत आसमाँ पर भी न खुल जाए मुझे आह-ओ-फ़ुग़ाँ करने की आदत होती जाती है मोहब्बत ही में मिलते हैं शिकायत के मज़े पैहम मोहब्बत जितनी बढ़ती है शिकायत होती जाती है 'शकील' उन की जुदाई में है लुत्फ़-ए-ज़िंदगी ज़ाइल नज़र बे-कैफ़ अफ़्सुर्दा तबीअ'त होती जाती है