सर-ब-सर एक चमकती हुई तलवार था मैं मौज-ए-दरिया से मगर बर-सर-ए-पैकार था मैं मैं किसी लम्हा-ए-बे-वक़त का इक साया था या किसी हर्फ़-ए-तही-इस्म का इज़हार था मैं एक इक मौज पटख़ देती थी बाहर मुझ को कभी इस पार था मैं और कभी उस पार था मैं उस ने फिर तर्क-ए-तअल्लुक़ का भी मौक़ा न दिया घटते रिश्तों से कि हर-चंद ख़बर-दार था मैं इस तमाशे में तअस्सुर कोई लाने के लिए क़त्ल 'बानी' जिसे होना था वो किरदार था मैं