पास-ए-नामूस-ए-तमन्ना हर इक आज़ार में था नश्शा-ए-निगहत-ए-गुल भी ख़लिश-ए-ख़ार में था किस से कहिए कि ज़माने को गराँ गुज़रा है वो फ़साना कि मिरी हसरत-ए-गुफ़्तार में था दिल कि आता ही नहीं तर्क-ए-तमन्ना की तरफ़ कोई इक़रार का पहलू तिरे इंकार में था कुछ तुझे याद है ऐ चश्म-ए-ज़ुलेख़ा-ए-जहाँ हम सा यूसुफ़ भी कोई मिस्र के बाज़ार में था ज़िंदगी जा न सकी शाम-ओ-सहर से आगे सारा आलम इसी आईना-ए-तकरार में था उम्र भर चश्म-ए-तमाशा को रही जिस की तलाश 'होश' वो हुस्न-ए-गुरेज़ाँ मिरे अशआ'र में था