पड़ गई दिल पर मेरे उफ़्ताद क्या इश्क़ काफ़िर कर गया बर्बाद क्या जिस को पहरों होश तक आना न हो उस में होगी ताक़त-ए-फ़रयाद क्या तुझ में जुरअत है तो कुछ ख़तरा नहीं कर सकेगी चर्ख़ की बेदाद क्या दिल ही जब अपना हुआ ईज़ा-तलब चाहें उस के ज़ुल्म की हम दाद क्या ख़्वाब में भी आप जब आते नहीं रह सकूँगा फिर भला मैं शाद क्या दिल को बहलाना ही गर मंज़ूर हो फूल से जंगल नहीं आबाद क्या आप-बीती से हमें फ़ुर्सत नहीं ले के बैठें क़िस्सा-ए-फ़रहाद क्या देखना हो तो शिकवा-ए-फ़क़्र देख शान-ए-जम क्या शौकत-ए-शद्दाद क्या मेहरबाँ है तुझ पे वो क्यों इन दिनों उस को समझा 'अर्शी'-ए-नाशाद क्या