कौन गुलशन में रहे नर्गिस-ए-हैराँ की तरह आओ चमका दें उसे मेहर-ए-दरख़्शाँ की तरह उम्र भर राह-नवर्दी का रहा हम को जुनूँ ख़ार-ज़ारों से भी गुज़रे हैं गुलिस्ताँ की तरह तार बाक़ी हैं जो दो-चार गरेबाँ में मिरे टूट जाएँ न कहीं तार-ए-रग-ए-जाँ की तरह लोग कहते हैं कि हो बाग़ में लेकिन हम को याँ कि हर शय नज़र आती है बयाबाँ की तरह ज़िंदगी नाम है मर मर के जिए जाने का दूर ही हम से रहो चश्मा-ए-हैवाँ की तरह हम को भाता है चमन दिल से मगर क्या कीजे इस में आराम नहीं गोशा-ए-ज़िंदाँ की तरह दाल गलती नहीं बस्ती में हमारी 'अर्शी' आओ वीराने ही में बैठ लें इंसाँ की तरह