पड़ गई जैसे अक़्ल पर मिट्टी ख़ाक मंज़िल है रहगुज़र मिट्टी मोड़ सकते हैं गीली होने तक टूट जाती है सूख कर मिट्टी बे-ज़मीरी जफ़ा-कशी नफ़रत नाम बदले हुए है हर मिट्टी फिर भी ज़ालिम की प्यास बाक़ी है हो चुकी है लहू में तर मिट्टी आओ ताज़ा मुसालहत कर लें पिछली बातों पे डाल कर मिट्टी जितने फ़रमान थे बुज़ुर्गों के हो गए आज बे-असर मिट्टी कपड़े सी सी के घर चलाती है है वो कम्बख़्त कितनी नर मिट्टी उँगलियों के हुनर से ऐ 'अकमल' शक्ल पाती है चाक पर मिट्टी