पहला सा वो जुनून-ए-मोहब्बत नहीं रहा कुछ कुछ सँभल गए हैं तुम्हारी दुआ से हम यूँ मुतमइन से आए हैं खा कर जिगर पे चोट जैसे वहाँ गए थे उसी मुद्दआ' से हम आने दो इल्तिफ़ात में कुछ और भी कमी मानूस हो रहे हैं तुम्हारी जफ़ा से हम ख़ू-ए-वफ़ा मिली दिल-ए-दर्द-आश्ना मिला क्या रह गया है और जो माँगें ख़ुदा से हम पा-ए-तलब भी तेज़ था मंज़िल भी थी क़रीब लेकिन नजात पा न सके रहनुमा से हम