पहले हर लफ़्ज़ तोलिए साहिब फिर ज़बाँ अपनी खोलिए साहिब कुछ तो हमराज़ का भरम रखिए बंद मुट्ठी न खोलिए साहिब शख़्सियत का लिहाज़ तो रखिए नर्म लहजे से बोलिए साहिब मेरे साग़र में अक्स-ए-जल्वा है देख कर ज़हर घोलिए साहिब खो न जाए कहीं वक़ार अपना बे-ज़रूरत न बोलिए साहिब बंद कीजे ज़बान चुप रहिए और आगे न बोलिए साहिब जो 'ज़िया' को चराग़-पा कर दे वो सहीफ़ा न खोलिए साहब