पहले इंसान मोहब्बत में मरा है शायद ज़हर तो बाद में ईजाद हुआ है शायद लफ़्ज़-ए-एहसास को तस्वीर नहीं कर सकते इश्क़ दुनिया की ज़बानों से बड़ा है शायद हुस्न की तरह तिरा इश्क़ मुकम्मल था मगर ये जुदाई मिरी क़िस्मत का लिखा है शायद मैं जिसे ढूँड रहा हूँ तिरे ख़ाल-ओ-ख़द में दर-हक़ीक़त कहीं ख़्वाबों में बसा है शायद ज़ेब देता है उसे इतना तग़ाफ़ुल मुझ से वो कहीं और भी मसरूफ़-ए-वफ़ा है शायद